कांग्रेस पार्टी को संगठन में कुछ बदलाव करना है। पिछले कई दिनों से इस बात की चर्चा है कि छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को पार्टी महासचिव बनाएगी। ध्यान रहे वे पांच साल मुख्यमंत्री रहे और कांग्रेस आलाकमान ने आंख मूंद कर उन पर भरोसा किया। उनका प्रचार भी खूब हुआ था और सब मान रहे थे कि वे दूसरी बार जीत रहे हैं। उनको खुद भी अंदाजा नहीं था कि उनकी कमान में कांग्रेस चुनाव हार जाएगी। लेकिन दिसंबर 2023 में कांग्रेस हार कर सत्ता से बाहर से हो गई। इसके बाद बघेल लोकसभा का चुनाव लड़े तो उसमें भी हार गए। जिन राज्यों में चुनाव का जिम्मा देकर उनको भेजा गया उसमें भी उनका रिकॉर्ड कोई बहुत अच्छा नहीं रहा है। इसके बावजूद उनको कांग्रेस में पिछड़ी जाति के चेहरे के तौर पर स्थापित किया गया है और इसी रूप में उनका प्रचार चल रहा है। इसके अलावा उनको प्रियंका गांधी वाड्रा का बेहद करीबी माना जाता है। ध्यान रहे प्रियंका खुद भी कांग्रेस की महासचिव हैं लेकिन उनके पास कोई जिम्मेदारी नहीं है। वे बिना विभाग के मंत्री की तरह बिना जिम्मेदारी की महासचिव हैं और केरल के वायनाड से लोकसभा का उपचुनाव लड़ने की तैयारी कर रही हैं। बहरहाल, कांग्रेस बघेल का फैसला नहीं कर पा रही है लेकिन राज्य सरकार ने फैसला कर दिया है। छत्तीसगढ़ सरकार ने महादेव बेटिंग ऐप के मामले की जांच सीबीआई को सौंप दी है। बघेल भी इस मामले में आरोपी हैं। हालांकि वे आरोपों से इनकार कर रहे हैं लेकिन सीबीआई तो पीछे पड़ेगी।
(स्मृति की सदाशयता का क्या मतलब? भाजपा के अंदर का एक खेमा स्मृति ईरानी को हासिए पर धकेलना में लगा हुआ है)
पूर्व केंद्रीय मंत्री और भाजपा नेता स्मृति ईरानी ने राहुल गांधी के प्रति सदाशयता दिखाई है। उन्होंने एक इंटरव्यू में राहुल की राजनीति का वस्तुनिष्ठ विश्लेषण किया। स्मृति ने कहा कि भाजपा को राहुल की राजनीति को हलके में नहीं लेना चाहिए। उन्होंने कहा कि राहुल टी शर्ट पहन कर संसद आ रहे हैं तो युवाओं को मैसेज दे रहे हैं। वे जो कर रहे हैं वह भले भाजपा को बचकाना लगे लेकिन वे अलग तरह की राजनीति कर रहे हैं। स्मृति ने यह भी कहा कि राहुल ने सफलता का स्वाद चख लिया है। सवाल है कि इस सदाशयता के पीछे क्या है? क्या सचमुच अमेठी की हार ने स्मृति ईरानी को बदल दिया है? इससे पहले तो वह राहुल और नेहरू गांधी परिवार पर हमला करने का कोई मौका नहीं छोड़ती थीं।
ऐसा लग रहा है कि इसके पीछे हृदय परिवर्तन वाली कोई बात नहीं है। इस सदाशयता के पीछे विशुद्ध राजनीति है। असल में लोकसभा चुनाव नतीजों के तुरंत बाद चर्चा हुई थी कि मोदी सरकार में मंत्री रहे दो तीन लोगों की चुनाव हारने के बाद भी सरकार में वापसी हो सकती है। उसमें स्मृति ईरानी और आरके सिंह का नाम लिया जा रहा था। कहा जा रहा था कि दोनों को राज्यसभा के उपचुनाव में मौका मिल जाएगा। लेकिन राज्यसभा की 12 सीटों के उपचुनाव में इनकी अनदेखी हो गई। तभी स्मृति ईरानी ने राज्यसभा के उपचुनावों के बाद ही बोला है। यह भी कहा जा रहा है कि पार्टी के अंदर एक खेमा उनको और हाशिए पर धकेलने में लगा हुआ है। उनको संगठन में भी कोई पद नहीं मिले, इसके प्रयास हो रहे हैं। तभी उन्होंने दबाव की राजनीति शुरू की है। राहुल के प्रति उनकी राय से भाजपा का कोई लेना देना नहीं है यह उनकी अपनी राजनीति का हिस्सा है।
(राहुल गांधी जम्मू कश्मीर तो प्रियंका हरियाणा के मसलों को हैंडल करेगी)
गांधी परिवार में काम का बटवारा अघोषित तौर पर ही हो जाता है। राहुल गांधी अपनी बहन प्रियंका की सियासी खूबियां व महत्वाकांचाओं को बखूबी समझते हैं। सो, बिना कहे ही प्रियंका के लिए एक रोड में तैयार रखते हैं। जैसे इस दफे जम्मू कश्मीर व हरियाणा में विधानसभा में चुनाव साथ-साथ हो रहे हैं तो राहुल ने अपने कोर ग्रुप को संकेत दिया है कि वे इस बार जम्मू कश्मीर में ज्यादा सक्रिय रहेंगे तो प्रियंका हरियाणा के मसलों को हैंडल करेगी। ऐसा पहले भी हो चुका है जब प्रियंका ने राजस्थान के साथ हिमाचल में अपनी सक्रियता दिखाई थी तो राहुल ने छत्तीसगढ़ और कुछ हद तक मध्य प्रदेश पर अपना फोकस रखा था।
(अजित पवार को 60 सीटें चाहिए)
एक पुरानी कहावत है, ‘दुकानदार उधार नहीं दे रहा है और आप कह रहे हो कम मत तौलना’, यह कहावत एनसीपी के नेता अजित पवार के ऊपर लागू होती है। भाजपा उनको अभी अपने गठबंधन में रखेगी या नहीं यह तय नहीं है। लेकिन वे कह रहे हैं कि सीटें कम नहीं लेंगे। लोकसभा चुनाव में भाजपा ने उनको चार सीटें दी थीं, जिनमें से वे एक सीट पर जीते। परंतु उनकी पार्टी कह रही है कि विधानसभा चुनाव में उनको 60 सीटें चाहिएं। लोकसभा सीटों के हिसाब से अगर विधानसभा सीटों की गिनती करें तो उनका दावा सिर्फ 24 सीटों पर बनता है। लेकिन प्रादेशिक पार्टी होने की वजह से वे ज्यादा सीट की मांग कर रहे हैं। दूसरी ओर भाजपा के नेताओं ने उनके खिलाफ मोर्चा खोला है। संघ के विचारक रतन शारदा की ओर से लेख लिख कर भाजपा व एनसीपी गठबंधन पर सवाल उठाए जाने के बाद से ही अजित पवार की पार्टी निशाने पर है। अब तो भाजपा के एक प्रदेश प्रवक्ता ने यहां तक कह दिया है कि एनसीपी को खुद ही भाजपा गठबंधन से अलग हो जाना चाहिए। इस पर अजित पवार ने कहा कि वे नरेंद्र मोदी और अमित शाह से बात करते हैं। लेकिन सवाल है कि भाजपा के या एकनाथ शिंदे की शिव सेना के जो नेता अजित पवार को दुत्कार रहे हैं उनके खिलाफ मोदी और शाह तो कोई कार्रवाई कर नहीं रहे हैं। इसका मतलब है कि पार्टी में भी एनसीपी को लेकर बहुत भरोसा या उम्मीद नहीं है। इसके बावजूद अजित पवार की पार्टी 60 सीट मांग रही है। क्या यह गठबंधन से अलग होने का दांव है?
सौजन्य :-पंजाब केसरी