लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी कांग्रेस के सर्वोच्च नेता हैं। लेकिन क्या पूरा विपक्ष उनको नेता मानने को तैयार है? यह सवाल कांग्रेस के साथ साथ विपक्षी पार्टियों के अंदर भी पूछा जा रहा है। यह सवाल इसलिए उठ रहा है क्योंकि विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ के अंदर एक उप समूह है, जिसके नेताओं का काम कांग्रेस पर दबाव डालते रहने का है। इसमें पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी मुख्य हैं। यह अलग बात है कि उन्होंने पिछला चुनाव अलग लड़ा था लेकिन वे गठबंधन का हिस्सा हैं। उनके अलावा समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव और आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल को इस दबाव समूह का हिस्सा माना जाता है। लेकिन ऐसा लग रहा है कि लोकसभा चुनाव के बाद इन पार्टियों ने भी राहुल गांधी को विपक्षी गठबंधन का नेता मान लिया है और यह भी मान लिया है कि कांग्रेस पार्टी ही गठबंधन का नेतृत्व कर रही है। इसके कुछ संकेत संसद के मानसून सत्र के दौरान दिखे और एक संकेत हाल के दिनों में दिखा है।
जानकार सूत्रों का कहना है कि तेलंगाना के पूर्व मुख्यमंत्री और भारत राष्ट्र समिति के नेता के चंद्रशेखर राव ने विपक्ष के कई नेताओं से संपर्क किया था। उन्होंने हैदराबाद में एक बड़ी रैली करने की इच्छा जताई थी। पहले भी वे ऐसी रैली कर चुके हैं और किसी भी दूसरे नेता से पहले चंद्रशेखर राव ने विपक्ष को एकजुट करके एक फेडरल फ्रंट बनाने का प्रयास शुरू किया था। पिछले दिनों उनकी बेटी के कविता को बड़ी राहत मिली, जब सुप्रीम कोर्ट ने शराब नीति में हुए कथित घोटाले में उनको जमानत दे दी। हालांकि तेलंगाना के मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी ने इस जमानत को भाजपा और बीआरएस की डील बता दिया था, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने नाराजगी जताई थी और रेवंत रेड्डी को माफी मांगनी पड़ी थी।
बहरहाल, के चंद्रशेखर राव की रैली के प्रस्ताव पर विपक्षी नेताओं में बात हुई और बताया जा रहा है कि सबने एक राय से इसको अभी स्थगित रखने का फैसला किया। जानकार सूत्रों का कहना है कि समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने कहा कि कांग्रेस और बीआरएस के बीच तेलंगाना में आमने सामने का मुकाबला है और ऐसे में विपक्षी पार्टियों को कोई ऐसा काम नहीं करना चाहिए, जिससे लगे कि वे कांग्रेस का विरोध कर रहे हैं। ममता की इस बात को विपक्षी पार्टियों ने स्वीकार किया और इस वजह से चंद्रशेखर राव को रैली का अपना कार्यक्रम स्थगित करना पड़ा। संसद के मानसून सत्र में भी दिखा कि राहुल गांधी विपक्ष का नेतृत्व कर रहे थे। उन्होंने विपक्ष के साझा मुद्दे उठाए। विपक्षी पार्टियों को पहले की तरह राहुल से राजनीतिक बात करने में हिचक नहीं है। उद्धव ठाकरे दिल्ली के दौरे पर आए तो वे राहुल गांधी से मिले और सीट बंटवारे से लेकर मुख्यमंत्री का चेहरा तय करने तक के मुद्दों पर बात की। शरद पवार ने भी राहुल के प्रति अपना पुराना आग्रह छोड़ दिया है। अखिलेश यादव के साथ भी उनकी केमिस्ट्री अच्छी हो गई है। कांग्रेस के नेता मान रहे हैं कि सोनिया गांधी की तरह राहुल ने विपक्षी नेताओं का सम्मान हासिल कर लिया है।
(घाटी में भाजपा ने उम्मीद छोड़ दी, सवाल है की घाटी में 47 सीटों पर अगर भाजपा बेमन से लड़ती है तो जम्मू की 43 सीटों पर लड़कर उसकी सरकार कैसे बनेगी?)
भारतीय जनता पार्टी क्या जम्मू कश्मीर में सिर्फ जम्मू क्षेत्र से चुनाव जीत कर सरकार बनाने के सपने देख रही है? इससे पहले जम्मू कश्मीर में आखिरी बार 2014 में विधानसभा चुनाव हुए थे तब भाजपा को 25 सीटें मिली थीं और सारी सीटें जम्मू क्षेत्र की थी। लेकिन उसके बाद 10 साल में भाजपा ने बड़ी मेहनत की। पहले तो वह मुफ्ती मोहम्मद सईद के साथ और फिर महबूबा मुफ्ती के साथ सरकार में रही। उसके बाद पिछले छह साल से राष्ट्रपति शासन में एक तरह से भाजपा का ही राज चल रहा है। राज्य के विभाजन से लेकर परिसीमन और आरक्षण तक अनेक ऐसे काम हुए, जिनसे लगा कि भाजपा इस बार राज्य में चुनाव जीत कर अपनी सरकार बनाने के लिए लड़ेगी।उसने कश्मीर घाटी की सभी 47 सीटों के लिए उम्मीदवार तैयार किए। लेकिन ऐसा लग रहा है कि उसने कश्मीर घाटी में चुनाव जीतने की उम्मीद छोड़ दी है। तभी पहले चरण में 18 सितंबर को जिन 16 सीटों पर मतदान होना है उनमें से सिर्फ आठ सीटों पर ही भाजपा मैदान में है। वह भी बहुत बेमन से पार्टी चुनाव लड़ रही है। भाजपा की ओर से जिन नेताओं को चुनाव की तैयारी के लिए कहा गया था वे निराश हो गए क्योंकि पार्टी ने लड़ने को नहीं कहा। सवाल है कि घाटी में 47 सीटों पर अगर भाजपा बेमन से लड़ती है तो जम्मू की 43 सीटों पर लड़ कर उसकी सरकार कैसे बनेगी? क्या भाजपा ने चुनाव से पहले ही हार मान ली है और इसलिए उप राज्यपाल को पहले ही ज्यादा ताकत देकर परोक्ष रूप से सत्ता अपने हाथ में रखने का फैसला किया है या चुनाव बाद गठबंधन की उसकी कोई रणनीति है, जिसे अभी कोई देख नहीं पा रहा है?
सौजन्य :- पंजाब केसरी